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लोकतंत्र की लुटिया डूबने, न डूबने देने का चुनाव

कोविड-19 महामारी तक को अनदेखा करके मार्च में करीब दो दर्जन विधायकों को ‘लोकतंत्र की रक्षा करने’ की खातिर अपने अल्‍पमत के पाले में मिलाने वाली ‘भारतीय जनता पार्टी’ और बहुमत गंवाकर गद्दी से उतारी जाने वाली ‘भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस,’ दोनों राजनीतिक जमातें कुछ इस अदा और उत्‍साह से फिर चुनाव-चुनाव खेलने में लग गई हैं, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। जाहिर है, राज्‍य की गद्दी पर चढती-उतरती भाजपा-कांग्रेस के लिए एकमात्र सत्‍य चुनाव है जिसे राजनैतिक जमातें बहु-विध व्‍याख्‍यायित करती रहती हैं। इनमें एक व्‍याख्‍या यह है कि अधिकांश सीटों पर होने वाले चुनावों में पिछली बार के ही प्रतिद्वंद्वी होने और उनकी सिर्फ पार्टियां और झंडे बदलने के बावजूद वे संविधान की नाक के नीचे चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जी-जान से जुटे हैं।

लोकतंत्र, संविधान, विधायिका, न्‍यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया सरीखे अच्‍छे-अच्‍छे शब्‍दों से पहचानी जाने वाली अच्‍छी-अच्‍छी संस्‍थाओं की एन नाक के नीचे लोकतंत्र की लुटिया डूब रही है। आठ-सवा आठ महीने पहले ज्ञात-अज्ञात कारणों से पाला बदलने और नतीजे में विधायिकी गंवाने वाले राजनेताओं को अब फिर से चुनाव का सामना करना पड रहा है। सन् 1950 की 26 जनवरी को लागू‍ किए गए संविधान के बाद शायद यह पहला ही मौका है जब खुल्‍लमखुल्‍ला लालच देकर बहुमत की सरकार डुबोई गई है। कथित खटपाटी लेकर राज्‍य के बाहर के होटलों, रिसार्टों में डेढ-दो हफ्ते मजा लूटने के बाद जब कांग्रेस छोडकर भाजपा में समाहित हुए विधायक वापस भोपाल लौटे थे तो उनमें से कई के खींसे में मंत्रीपद और कुछ के पास सरकारी निगमों, मंडलों की मुखियागिरी के अलावा कांग्रेस के खिलाफ गालियां थीं।  

मजा यह है कि कोविड-19 महामारी तक को अनदेखा करके मार्च में करीब दो दर्जन विधायकों को ‘लोकतंत्र की रक्षा करने’ की खातिर अपने अल्‍पमत के पाले में मिलाने वाली ‘भारतीय जनता पार्टी’ और बहुमत गंवाकर गद्दी से उतारी जाने वाली ‘भारतीय राष्‍ट्रीय कांग्रेस,’ दोनों राजनीतिक जमातें कुछ इस अदा और उत्‍साह से फिर चुनाव-चुनाव खेलने में लग गई हैं, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। जाहिर है, राज्‍य की गद्दी पर चढती-उतरती भाजपा-कांग्रेस के लिए एकमात्र सत्‍य चुनाव है जिसे राजनैतिक जमातें बहु-विध व्‍याख्‍यायित करती रहती हैं। इनमें एक व्‍याख्‍या यह है कि अधिकांश सीटों पर होने वाले चुनावों में पिछली बार के ही प्रतिद्वंद्वी होने और उनकी सिर्फ पार्टियां और झंडे बदलने के बावजूद वे संविधान की नाक के नीचे चुनाव की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जी-जान से जुटे हैं। इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्‍होंने विधायिकी की खातिर कई-कई बार राजनीतिक पाला बदला है और कईयों ने तीन-तीन बार एक ही पार्टी से चुनाव लडकर जीतने के बाद मंत्रीपद के लालच में अब समूची पार्टी ही बदल ली है।     

लेकिन इस लोकतांत्रिक धतकरम में कुछ ऐसा भी हुआ है जिसने संसदीय लोकतंत्र की नींव हिलाकर रख दी है। सरल, सीधी नजरों से देखें तो अव्‍वल तो हमें यही दिखाई देता है कि कोई भी तुर्रमखां कुछ करोड रुपयों की रकम लुटाकर किसी भी अच्‍छी–खासी, बहुमत सम्‍पन्‍न सरकार को कुलटइयां खिला सकता है। आखिर चार्टर्ड हवाई जहाज, एसी-वॉल्‍वो बसों और बेंगलुरु के मंहगे रिसार्ट में ठहरने जैसे ज्ञात और कई कारणों से अब तक अज्ञात खर्चों की दम पर ही तो कमलनाथ की बहुमत की कांग्रेसी सरकार डुबोई गई थी? याद रखिए, यह कमाल केवल भाजपा ही जानती और वापर सकती है, ऐसा नहीं है। ठीक यही करने में कांग्रेसियों और दूसरी पार्टियों ने भी खासी वर्जिश कर रखी है और भाजपा की तर्ज पर वे भी इसे ‘लोकतंत्र की रक्षा’ और ‘दम घुटने के नतीजे’ आदि कहकर कभी भी आजमा सकते हैं। वैसे भी राज्‍य के मौजूदा चुनावों में आपस में लडती दिखती किसी भी पार्टी ने पाला बदलकर लोकतंत्र की लुटिया डुबोने का अप्रिय प्रसंग शिद्दत से नहीं उछाला है। तो क्‍या बडी मेहनत-मशक्‍कत के बाद जमाई जाने वाली लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था को यूं ही, चंद रुपयों की खातिर मटिया-मेट करने दिया जा सकता है?   

लोकतंत्र के संविधान में माना जाता है कि पैसों की दम पर सत्‍ता हथियाने के इस खुले खेल फर्रुख्खाबादी के बावजूद राजनेताओं को चुनाव की मार्फत अपने बहुमत की तस्‍दीक करनी ही पडती है। जाहिर है, दस महीनों के अंतराल में होने वाले गैर-जरूरी चुनावों में आम नागरिकों से वसूली जाने वाली टैक्‍स की राशि बर्बाद होती है। पैट्रोल, डीजल जैसी जरूरी और शराब जैसी गैर-जरूरी जिन्‍सों की आसमान छूती कीमतें गैर-जरूरी चुनावों में होने वाले खर्चों की वजह से भी बढती हैं। सवाल है कि क्‍या कांग्रेस की जगह भाजपा के आने से आम नागरिकों के दैहिक-दैविक-भौतिक तापों में कोई विशेष बदलाव आ सकेगा? क्‍या कमलनाथ की जगह आई शिवराजसिंह की सरकार राज्‍य के नागरिकों की न्‍यूनतम, बुनियादी जरूरतों को पूरा कर पाएगी?

मध्‍यप्रदेश विधानसभा की अट्ठाइस सीटों के मौजूदा चुनाव में शिवराजसिंह तीन-साढे तीन हजार करोड के विकास कार्यों की घोषणा कर चुके हैं, लेकिन 2014 में लोकसभा चुनावों में इसी तरह के वायदों को ‘चुनावी जुमले’ बताकर खुद उनकी पार्टी के सरगनाओं ने ऐसे वायदों की भद्द पीट दी थी। कमलनाथ ने भी अपने सवा साल के राज में शिवराजसिंह से भिन्‍न कोई खास तीर मारे हों, ऐसा दिखाई तो नहीं देता।  

पिछले साल भर चली मध्‍यप्रदेश की राजनीति बताती है कि असल में आज हम जिस परिस्थिति में पहुंच गए हैं उसमें लोकतंत्र और उसकी मार्फत लोकहित खतरे में पड गया है। हीब्रू विश्‍वविद्यालय के दार्शनिक मोशे हालबर्तल कहते हैं कि ‘राजनीति में मूल्‍यों, तत्‍थ्‍यों और ऐसे नेताओं की जरूरत है जो अपने फैसले राजनीतिक बढत की बजाए लोकहित के लिए लें।’ लेकिन क्‍या चुनावों, खासकर आने वाली तीन नवंबर को होने वाले मध्‍यप्रदेश विधानसभा की 28 सीटों के चुनाव, किसी भी तरह से लोकहित में होते दिखाई देते हैं? क्‍या ‘लोकतंत्र की रक्षा,’ ‘जनता की सेवा’ और छोडी गई पार्टी में ‘दम घुटने’ की फर्जी बहाने-बाजी की दम पर शुद्ध निजी आर्थिक लाभ की खातिर सार्वजनिक बेशर्मी से पाला बदलने वाले लोकतंत्र और लोकहित की रत्‍ती भर भी परवाह करेंगे? और यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो नागरिक या वोटर की तरह हमारी क्‍या जिम्‍मेदारी है? संयोग से इन 28 सीटों के वोटरों को इतिहास ने ऐसा मौका दे दिया है कि वे तीन नवंबर को होने वाले चुनाव में अपनी भागीदारी से भारत में लोकतंत्र का भविष्‍य तय कर सकें। क्‍या वे इस भारी-भरकम जिम्‍मेदारी का बोझ उठाना चाहेंगे?

कहा जाता है कि वोटर का मन एन बटन दबाने तक उजागर नहीं होता, लेकिन माहौल का गणित और चुनाव लडते नरपुंगवों की साख कुछ रुझान तो फिर भी बता ही देती है। इस बार भी पहले की तरह सिर्फ चुनाव जीतने की गारंटी देने वालों को ‘टिकट’ दी गई है और इसमें उस बेशर्मी का कोई खयाल नहीं रखा गया है जो कुछ महीनों पहले बिलकुल विपरीत झंडे-डंडे वाली पार्टी, उसके कार्यकर्ता और समाज की नजर के रू-ब-रू आनी चाहिए थी। जाहिर है, राजनैतिक जमातों के लिए यह चुनाव भी, पिछले सालों में हुए अन्‍य चुनावों की तरह ‘रुटीन’ ही है। तो क्‍या वे लोग कुछ करिश्‍मा कर पाएंगे जिन्‍हें देश के लोकतंत्र और संविधान की परवाह है?

अपने वोटर अवतार में उतरे ऐसे नागरिकों को हमेशा के जाति, धर्म, हिन्‍दू–मुस्लिम और शराब-साडी-पैसा के धतकरमों को बरकाकर इस बार यह तय करने के लिए वोट देना होगा कि क्‍या लोकतंत्र में पैसा देकर पार्टी और बहुमत की सरकार बदली जा सकती है? लोकतंत्र को मखौल में तब्‍दील करने वाले ऐसे विधायकों, पार्टियों को क्‍यों चुना जाना चाहिए? लोकतंत्र की यह मिट्टी-पलीती सिर्फ उन चुनावरत 28 विधानसभा सीटों के मतदाताओं भर का सरोकार नहीं है। इसमें समूचे मध्‍यप्रदेश और देश को अपने-अपने काम-धंधे, राजनीतिक-आर्थिक प्रतिबद्धताएं और पारंपरिक लगाव को छोडकर कूदना चाहिए। याद रखिए, कितनी भी बुराइयां हों, लोकतंत्र हमारे जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश के लिए एकमात्र कारगर शासन पद्धति है और उसकी बदहाली हम सभी को भुगतना पड सकती है।

राकेश दीवान (लेखक, बरिष्ट पत्रकार )

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