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शिवराज चौहान ने मिस्टर पंद्रह परसेंट का चुनावी तीर छोड़ा, तो जवाब में कमलनाथ ने मिस्टर 115 परसेंट का शब्दभेदी बाण छोड़

भोपाल। मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने मिस्टर पंद्रह परसेंट का चुनावी तीर छोड़ा तो जवाब में पूर्व मुख्यमंत्री कमल नाथ ने मिस्टर एक सौ पंद्रह परसेंट का शब्दभेदी बाण छोड़ दिया। शायद यह बताने के लिए कि शब्दों के तीर चलाने के मामले में धनुर्धर मैं भी कम नहीं हूँ। और इस तरह चुनावी जंग के मैदान का ताज़ा राउंड फ़िलहाल कमलनाथ ने अपने नाम कर लिया।  मध्य प्रदेश के विधानसभा उपचुनाव में शब्दबाणों की ये महाभारत लगातार जारी हैं। नेताओं के वार-पलटवार में शब्दों के ऐसे-ऐसे तीर छोड़े जा रहे हैं जिनसे विरोधी ज़ख़्मी हो न हों, सुनने वालों को मज़ा ज़रूर आता हैं। हां, शब्दों की मर्यादा कई बार टूट जाती है, जो ठीक नहीं है।

चुनावी माहौल में नेताओं के आपसी घमासान का ये अंदाज़ मतदाताओं तक पहुंचाने में मीडिया की भी बड़ी भूमिका है। मिसाल के तौर पर, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने शिवराज सिंह चौहान को मिस्टर एक सौ पंद्रह परसेंट यूं ही नहीं कह दिया। शनिवार को कांग्रेस के वचन पत्र के विमोचन का मौक़ा था। प्रेस कॉन्फ़्रेंस हो रही थी। लेकिन चुनावी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में सवाल अगर उस मुद्दे तक ही सीमित रह जाएं, जिसके लिए पत्रकारों को बुलाया गया है, तो भला वो पत्रकार ही कैसे।

तो एक पत्रकार महोदय ने अपनी समझदारी का परिचय देते हुए कमलनाथ से हेडलाइन निकालने वाला वो  सवाल पूछ ही दिया, जो उन्हें एक ज़ोरदार डायलॉग बोलने के लिए प्रेरित कर सके। उन्होंने पूछा कि कमलनाथ जी, शिवराज चौहान तो अपनी चुनावी सभाओं में आपको बार-बार मिस्टर पंद्रह परसेंट बोल रहे हैं, यानी भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं। आप इस पर क्या कहेंगे। फिर क्या था, कमलनाथ भी जवाब देने के मूड में आ गए और फ़ौरन एक सौ पंद्रह परसेंट का जवाबी तीर छोड़ दिया।

चुनावी डायलॉग में उलझकर असली मुद्दे छूट न जाएं

चुनावों में ऐसे वार-पलटवार तो होते ही हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन दिक़्क़त तब होती है, जब ऐसी डायलॉगबाजी के चक्कर में जनता के असली मुद्दे चुनाव के केंद्र में नहीं आ पाते। मसलन इसी चुनाव की बात करें, तो एक ताज़ा मसला ये है कि केंद्रीय चुनाव आयोग ने कांग्रेस की शिकायत पर उन बड़े अफ़सरों के तबादले रद्द कर दिए, जो शिवराज सरकार ने चुनाव का एलान होने के बाद भी बड़ी बेशर्मी से कर दिए थे। चुनाव आयोग के फ़ैसले ने भी साफ़ कर दिया है कि शिवराज चौहान की सरकार अफ़सरों की मदद से चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश कर रही है। लेकिन क्या किसी चुनावी सभा में आपने शिवराज सिंह चौहान को इस पर माफ़ी मांगते या सफ़ाई देते सुना है? नहीं न!

इन मुद्दों पर देना चाहिए सत्ताधारी नेताओं को जवाब

किसानों की आत्महत्या हो या लॉकडाउन के कारण सूदखोरों के जाल में फंसकर जान देने वाले  छोटे कारोबारियों और अन्य लोगों की परेशानियाँ, कोरोना महामारी से निपटने में सरकारी अमलों की एक के बाद एक सामने आने वाली नाकामियां हों या सरकार की नाक के ठीक नीचे चल रहा ज़हरीली शराब का गोरखधंधा, रसातल में जा रही देश की आर्थिक हालत हो या उसके कारण तेज़ी से बढ़ती बेरोज़गारी और प्रति व्यक्ति आय…ऐसे अनगिनत मसले हैं, जिन पर जनता को अपने हुक्मरानों से सवाल पूछने चाहिए। जनता की तरफ़ से विपक्ष को या मीडिया को भी ऐसे मुद्दे उठाने चाहिए। लोकतंत्र में इनकी यही तो भूमिका है। विपक्षी दल तो कुछ हद तक अपनी ये भूमिका निभाते भी हैं। लेकिन मीडिया का क्या? नेताओं के चुनावी शब्दबाणों का मज़ा लेने में कोई हर्ज नहीं, लेकिन इनके चक्कर में वो असली सवाल छूटने नहीं चाहिए, जिनके जवाब देना हर मौजूदा निज़ाम की ज़िम्मेदारी है।

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