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भाजपा में सबसे ज्यादा नाराज नेता ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के

इस नाराजगी का कारण ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक

भोपाल – मध्यप्रदेश में भाजपा के नाराज नेताओं की लिस्ट भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह की टेबल तक भी पहुंच चुकी है। चुनाव को अब करीब चार महीने ही बचे हैं। ऐसे में भाजपा नेताओं की पेशानी पर बल हैं।
नाराज नेताओं को लेकर भाजपा का पिछला अनुभव बेहद ही खराब रहा है। नाराजगी के चलते 2020 के विधानसभा उपचुनाव में भाजपा को कई सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा। यही कारण है कि अब हर नाराज नेता को मनाने की भरसक तैयारी चल रही है।
सबसे ज्यादा नाराज नेता ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के हैं। इस नाराजगी का कारण ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थक हैं। पुराने और नाराज भाजपा नेताओं का कहना है कि ये लाेग बाहर से आए हैं और हम भाजपा में ही है। इसके बावजूद पार्टी सिंधिया समर्थकों को ज्यादा ही तवज्जो दे रही हैं, वो भी तब जब ये लोग उपचुनाव हार चुके हैं।
भास्कर ने जब इसी अंचल के एक नेता से बात की तो उनका दर्द छलक उठा। उन्होंने कहा कि हमें सिंधिया और उनके समर्थकों के बीजेपी में आने से कोई परेशानी नहीं है, लेकिन पार्टी स्तर पर उन्हें ज्यादा तवज्जो दी जा रही है। इससे मूल विचारधारा वाले असली भाजपा नेता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। सिंधिया समर्थक विधायक उपचुनाव हार गए। इसके बावजूद उन्हें निगम मंडल की कमान सौंपी गई, लेकिन 2018 में चुनाव हारने वालों को कोई पद नहीं दिया गया।
वे अगले चुनाव के लिए टिकिट की दावेदारी तो कर रहे हैं, लेकिन सिंधिया समर्थकों को प्राथमिकता मिलने की संभावना के चलते कई नेता विकल्प पर विचार भी कर रहे हैं।
जानकार कहते हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके समर्थकों को बीजेपी में शामिल हुए करीब तीन साल हो गए हैं, वापस चुनाव आ गए हैं। ग्वालियर-चंबल में भाजपा के पुराने नेता सिंधिया समर्थकों को अपना नहीं पाए हैं। चुनावी साल में भाजपा ने अपने पुराने नेताओं को अवॉइड कर सिंधिया समर्थकों को न केवल अहम जिम्मेदारी दी है, बल्कि उन्हें कई समितियों और मंडल में जगह भी दी है।

2018 में चुनाव हारने वाले दो नेताओं को दिया पद

मंजू दादू – नेपानगर से विधायक रहीं। 2018 में कांग्रेस की सुमित्रा देवी कास्डेकर से चुनाव हार गईं, लेकिन कास्डेकर बीजेपी में शामिल हो गईं। उपचुनाव के दौरान में मंजू दादू के बगातवी तेवर देखने मिले थे। फरवरी 2023 में उन्हें एमपी विपणन बोर्ड का अध्यक्ष बना दिया गया।

रामलाल रौतेल – अनूपपुर से विधायक रहे। 2018 में कांग्रेस के बिसाहूलाल सिंह से चुनाव हार गए। सिंधिया समर्थकों के साथ बिसाहूलाल भी बीजेपी में शामिल हो गए। अब उनका टिकट का दावा मजबूत है। ऐसे में रौतेल को कोल विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया और राज्य मंत्री का दर्जा दिया गया है।

कहां, कौन है नाराज

रुस्तम सिंह: शिवराज सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रह चुके हैं। 2018 में मुरैना सीट से कांग्रेस के रघुराज कंषाना से चुनाव हार गए थे। कंषाना अब बीजेपी में हैं। इस चुनाव के बाद से रुस्तम सिंह की संगठन में सक्रियता दिखाई नहीं दे रही है।
लड्डूराम कोरी: 2018 के चुनाव में अशोकनगर सीट से कांग्रेस के जजपाल सिंह जज्जी से चुनाव हार गए। अब जज्जी बीजेपी में हैं। कोरी सार्वजनिक तौर पर जज्जी के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। जाति प्रमाण पत्र मामले में वह अभी भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं। वह इस बार भी टिकट की दावेदारी कर रहे हैं।

बृजमोहन सिंह: गुना जिले की बमोरी सीट से अपने पुत्र महेंद्र किरार के लिए टिकट मांग रहे हैं। बृजमोहन 2018 में महेंद्र सिंह से चुनाव हार गए थे। उस समय सिसोदिया कांग्रेस में थे। इस चुनाव के लिए बृजमोहन ने महेंद्र किरार का नाम आगे किया है। टिकट न मिलने की स्थिति में उनकी नाराजगी किसी भी रूप में सामने आ सकती है।

वीरेंद्र रघुवंशी: शिवपुरी जिले की कोलारस सीट से विधायक वीरेंद्र रघुवंशी तो बैठक में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के सामने ही प्रभारी मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। उन्हें लगता है कि सिसोदिया उनसे ज्यादा तरजीह महेंद्र यादव को देते हैं और उनके टिकट के लिए लॉबिंग कर रहे हैं। विधायक वीरेंद्र रघुवंशी इसी कारण नाराज चल रहे हैं।

केपी यादव: गुना-शिवपुरी सांसद केपी यादव की नाराजगी किसी से छिपी नहीं है। कई बार सिंधिया समर्थकों के साथ उनका आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी हुआ है। खुलेआम उन्होंने सिंधिया समर्थकों पर प्रोटोकॉल के उल्लंघन को लेकर आरोप लगाए हैं। वे सिंधिया समर्थकों के कार्यक्रमों से भी खुद को दूर ही रखते हैं।

राजेश सोनकर: 2018 में इंदौर की सांवेर सीट से कांग्रेस के तुलसी सिलावट से चुनाव हारे। सिलावट अब शिवराज सरकार में मंत्री हैं। अगले चुनाव में सिलावट को ही टिकट मिलने की संभावना हैं। टिकट के खटाई में पड़ने से सोनकर नाराज चल रहे हैं।

बिकाऊ नहीं टिकाऊ को दें टिकट

गुना विधानसभा में तो मूल भाजपा के नेता ही एक- दूसरे की टांग खिंचाई में लगे हैं। पूर्व विधायक पन्नालाल शाक्य ने एक कार्यक्रम के दौरान मंच से वर्तमान विधायक गोपीलाल जाटव का नाम लिए बिना इशारों में मांग कर दी कि पार्टी इस बार बिकाऊ की जगह टिकाऊ को टिकट दें।

सिधिंया समर्थकों के टिकट भी कट सकते हैं

जानकार कहते हैं कि सिंधिया के लिए सबसे बड़ी समस्या है कि अहम मौकों पर पार्टी के पुराने नेता उनके खिलाफ अक्सर गोलबंद हो जाते हैं। स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान यह देखने को मिला था। ऐसे में पहले ही आशंका जताई जा रही है कि सिंधिया समर्थक विधायक और मंत्रियों के टिकट कट सकते हैं।

यह भी स्पष्ट है कि चुनाव के दौरान तोमर की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। ऐसे में सिंधिया के लिए आने वाले दिनों में मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

इधर, पार्टी सूत्रों का कहना है कि केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को चुनाव प्रबंध समिति का संयोजक बनाए को सिंधिया के समर्थकों लिए झटका माना जा रहा है। इसकी दो वजह हैं। पहली – तोमर को सिंधिया का राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माना जाता है। दूसरी- सिंधिया की तरह तोमर भी ग्वालियर-चंबल क्षेत्र से आते हैं। तमाम सर्वे में ग्वालियर-चंबल में बीजेपी की हालत कमजोर बताई जा रही है।

घोषणा पत्र समिति में कई बड़े नेता साइड लाइन

घोषणा पत्र समिति में कई बड़े नेताओं को साइड लाइन किया गया है। समिति में केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र खटीक, उमा भारती, सुमित्रा महाजन, रघुनंदन शर्मा, जयभान सिंह पवैया, कृष्ण मुरारी मोघे, विक्रम वर्मा जैसे नेताओं को बाहर रखा गया है।

सूत्रों का कहना है कि केंद्रीय मंत्री खटीक को इसलिए समिति में नहीं लिया गया, क्योंकि उन्होंने हाल ही में 10 साल पुरानी घोषणाओं को पूरा करने को लेकर शिवराज सिंह चौहान को एक पत्र लिखा था। इसमें खटीक ने कहा था कि 2013 और 2018 के चुनावों से पहले दो बार एक ही काम की घोषणा हुई, लेकिन अब तक यह काम पूरे नहीं हुए हैं।

इधर, 50 से ज्यादा उम्र के हटाए गए अधिकतर जिलाध्यक्ष घर में बैठे

पार्टी सूत्रों का कहना है कि मई 2020 में 50 से ज्यादा उम्र के 24 जिलों के अध्यक्षों को हटाकर युवाओं को कमान सौंपी गई थी। इसमें से अधिकतर सक्रिय दिखाई नहीं दे रहे हैं। अब उन्हें चुनाव में कोई ना कोई जिम्मेदारी देने की तैयारी है। इन नेताओं से क्षेत्र के सांसद के अलावा विधायकों से बात करने को कहा गया है।

बता दें कि केंद्रीय नेतृत्व ने जिला अध्यक्षों की 50 व मंडल अध्यक्षों की अधिकतम उम्र 40 तय की है। पार्टी का मानना है कि निचले स्तर पर कम उम्र में जिम्मेदारियां दिए जाने पर नए नेताओं को उभरने का मौका मिलता है। अगर कोई 40 साल में मंडल अध्यक्ष बनता है तो फिर उसके पास जिले से लेकर प्रदेश की राजनीति में जाने तक की काफी उम्र रहती है।

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